Wednesday, August 11, 2010

रेडियो – अकेलेपन का सच्चा साथी

दुनिया में ऐसा कौन है, जिसने कभी अकेलापन महसूस नहीं किया? हममें से कई लोग अब भी अकेले हैं, घर परिवार से दूर रहते हैं| ऐसे में भीड़ में होने पर भी अकेलापन महसूस होता है| आजकल तो इन्टरनेट है जो हमारा सच्चा साथी बनकर हमेशा साथ निभाता है| आज से १५-२० साल पहले की बातें याद करता हूँ, तो मुझे रेडियो को याद आती है|

रेडियो – मेरा एकलौता सच्चा साथी, जिसने अकेलेपन में, भीड़ में, खुशी में, और गम में भी हमेशा मेरा साथ दिया| पचपन से ही मैं संगीत का बहुत बड़ा शौक़ीन था, मुझे पुरानी हिंदी फिल्मों के गाने बहुत पसंद थे| पढ़ने के समय भी मेरा रेडियो चलता रहता था| कभी कभी सोचता हूँ की रेडियो के लिए मेरी दीवानगी के पीछे क्या कारण था, तो बस एक चेहरा मेरे सामने आता है, मेरे पिता जी का| मैं उन्हें काका कहता हूँ, चचेरे भैया और दीदी लोगों को कहते सुना था, तब से मैं भी यही कह रहा हूँ (वैसे आजकल फोन पर कभी कभी पापा निकल जाता है मुँह से (झूठी अंग्रेजियत की निशानी)|

वापस रेडियो पर आता हूँ, काका को पता था की मुझे रेडियो सुनना बहुत पसंद है और रेडियो सुनकर ही मैं पढाई अच्छे से करता हूँ| उनके पास संतोष का एक पुराना रेडियो था, जो सिर्फ उनसे ही चलता था| हमारे लाख प्रयास से भी वो रेडियो कभी गाने नहीं सुना पता था, हमेशा मच्छरों की आवाज़ ही आती थी| इसलिए वो खुद से ही कभी पटना, कभी विविध भारती, कभी ऑल इंडिया रेडियो, और पता नहीं कौन कौन सा स्टेशन लगा लगा कर मुझे गाने सुनते रहते थे|

मेट्रिक पास करने के बाद जब पटना गया आगे पढ़ने के लिए तो रेडियो और काका की याद सबसे ज्यादा आती थी, अकेले में रोने से जब फुर्सत मिलती थी तो लगता था की काश पापा २०० रूपये ज्यादा भेज देते तो एक रेडियो खरीद लेता| लेकिन सीमित आमदनी में २०० ज्यादा भेजना संभव नहीं था, उन दिनों चाइना के रेडियो का प्रचलन शुरू हुआ था| १० बैंड वाला रेडियो, जिसमे आप दूरदर्शन के कार्यक्रम भी सुन सकते थे| किसी तरह से मैंने जुगाड करके एक रेडियो लिया| आकार में छोटा था आराम से पैंट की जेब में आ जाता था, चौबीसों घंटे मेरे साथ ही रहता था वो रेडियो| महेन्द्रू में रहता था, पोस्ट ऑफिस के पास चायवाले के पास चाय पिने भी जाता तो मेरे साथ ही रहता था| लोग अजीब-अजीब नजरों से देखते थे मुझे, लेकिन मैं उल्टा उन्हें ही हेय दृष्टि से देखता था|

विविध भारती के कुछ कार्यक्रम जैसे की छायागीत, बाईस्कोप की बातें, और भूले-भिसरे गीत मेरे पसंदीदा कार्यक्रमों में से थे| आज भी विविध भारती सुनता हूँ तो वो समय याद आ जाता है, जब मेरे अकेलेपन का एकलौता साथी सिर्फ रेडियो हुआ करता था|

तकनीक के दौर में एक समय रेडियो पीछे छूटता हुआ दिख रहा था, लेकिन एफ-एम् क्रांति के चलते एक बार फिर ये जनमानस तक पहुंच चुका है| मोबाइल क्रांति का भी रेडियो के एक बार फिर से बढते उपयोग में अहम योगदान है| मैं भी खुश हूँ की मेरे अकेलेपन का साथी रेडियो बदले हुए रूप में एक बार फिर मुझे मिल गया है| वैसे आजकल इसके विकल्प भी बहुत सारे हैं, उन विकल्पों पर चर्चा फिर कभी....

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